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ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन – JAC Class 12 Sociology Part 2 Chapter 4 Notes

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ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन (Sociology Class 12 Notes): ग्रामीण समाज में विकास और परिवर्तन के ये पहलू हमें समझाते हैं कि कैसे कृषि, सामाजिक संरचना, और आर्थिक परिस्थितियाँ आपस में जुड़ी हुई हैं। हरित क्रांति, भूमि सुधार, और संविदा कृषि के प्रभाव ने ग्रामीण समाज को नए आयाम दिए हैं, लेकिन इसके साथ ही कई चुनौतियाँ भी उत्पन्न हुई हैं।

TextbookNCERT
ClassClass 12 Notes
SubjectSociology (समाज शास्त्र) Part-2
ChapterChapter 4
Chapter Nameग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन
Categoryकक्षा 12 Sociology नोट्स
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Official WebsiteJAC Portal
ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन – JAC Class 12 Sociology Part 2 Chapter 4 Notes

भारतीय ग्रामीण समाज: एक परिचय

ग्रामीण समाज की महत्ता

भारतीय समाज मुख्यतः ग्रामीण परंपराओं पर आधारित है। 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की लगभग 60% जनसंख्या गाँवों में निवास करती है। ग्रामीण जीवन का अधिकांश हिस्सा कृषि और उससे संबंधित व्यवसायों पर निर्भर करता है, जिसमें भूमि की उत्पादकता एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत में ग्रामीण समाज की पहचान उसके सांस्कृतिक, सामाजिक, और आर्थिक ढांचे से होती है।

कृषि और संस्कृति का घनिष्ठ संबंध

भारतीय ग्रामीण समाज में कृषि और संस्कृति के बीच एक गहरा संबंध है। ग्रामीण भारत के कई त्योहार, जैसे पोंगल, बैसाखी, ओणम, हरियाली तीज, बीहू, और उगाड़ी, फसल कटाई के समय मनाए जाते हैं। ये त्योहार कृषि के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हैं और ग्रामीण जीवन के अनिवार्य हिस्से के रूप में उपस्थित होते हैं।

व्यवसायों की विविधता

भारतीय ग्रामीण समाज में विभिन्न जातियाँ विभिन्न व्यवसायों से जुड़ी हुई हैं, जैसे कि धोबी, कुम्हार, सुनार, नाई, आदि। इन व्यवसायों की विविधता भारतीय जाति व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करती है और यह समाज की संरचना को आकार देती है।

कृषिक संरचना: भूमि और उसके वितरण

भूमि का असमान वितरण

भारत में भूमि का वितरण अत्यधिक असमान है। कुछ क्षेत्रों में अधिकांश लोग भूमि के स्वामी हैं, जबकि अन्य क्षेत्रों में 40-50% परिवारों के पास कोई भूमि नहीं होती। यह असमानता समाज में आर्थिक विषमता को बढ़ावा देती है और सामाजिक तनाव का कारण बनती है।

महिलाओं की स्थिति

उत्तराधिकार के नियमों और पितृवंशीय नातेदारी के कारण, अधिकांश महिलाएँ भूमि की स्वामित्व से वंचित रहती हैं। इस स्थिति ने ग्रामीण समाज में महिलाओं की भूमिका को सीमित कर दिया है, जिससे उनके विकास में रुकावट आई है।

प्रबल जातियाँ: सामाजिक और आर्थिक शक्ति

प्रबल जातियों की पहचान

भारतीय गाँवों में कुछ जातियाँ, जैसे जाट, यादव, और रेड्डी, राजनीतिक और आर्थिक रूप से शक्तिशाली मानी जाती हैं। इन्हें प्रबल जातियाँ कहा जाता है। इन जातियों का समाज पर गहरा प्रभाव होता है, और ये अक्सर गांवों के सामाजिक ढाँचे को नियंत्रित करती हैं।

श्रमिक वर्ग की स्थिति

सीमान्त किसान और भूमिहीन श्रमिक अक्सर निम्न जातियों से आते हैं। ये किसान अधिकतर प्रबल जातियों के जमींदारों के यहाँ कृषि मजदूरी करते हैं। उत्तरी भारत के कुछ क्षेत्रों में आज भी बेगार और मुफ्त मजदूरी जैसी प्रथाएँ प्रचलित हैं।

जमींदारी और रैयतवाड़ी व्यवस्था

जमींदारी प्रणाली

भारतीय कृषि में जमींदारी प्रणाली का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इस प्रणाली में जमींदार भूमि के स्वामी माने जाते थे, और किसानों का सरकार से सीधा संबंध नहीं होता था। किसान जमींदार को फसल का एक हिस्सा देते थे, जिसके बदले में जमींदार उन्हें भूमि पर कार्य करने की अनुमति देता था।

रैयतवाड़ी प्रणाली

रैयतवाड़ी व्यवस्था में किसानों को सीधे सरकार को कर चुकाने की अनुमति थी। यह प्रणाली जमींदारी प्रणाली से बेहतर मानी जाती थी क्योंकि इसमें किसानों को अधिक अधिकार मिलते थे। लेकिन औपनिवेशिक शासन के दौरान कृषि पर अधिक कर लगाया गया, जिससे कृषि उत्पादन में कमी आई।

भूमि सुधार: स्वतंत्र भारत में परिवर्तन

भूमि सुधार के उद्देश्य

स्वतंत्र भारत में, नेहरू और उनके सलाहकारों ने 1950 से 1970 तक भूमि सुधार कानूनों की एक श्रृंखला शुरू की। इसका मुख्य उद्देश्य कृषि उपज को बढ़ाना और गरीब किसानों को भूमि का अधिकार देना था।

भूमि सुधार के प्रमुख पहलू

  1. जमींदारी व्यवस्था का उन्मूलन: यह केवल कुछ क्षेत्रों में ही प्रभावी हुआ।
  2. पट्टादारी को खत्म करना: यह कानून केवल कुछ राज्यों में लागू हुआ।
  3. भूमि की हदबंदी: इस प्रणाली ने भूमि के अधिकतम स्वामित्व को सीमित करने का प्रयास किया।

बेनामी बदल

भूमि सुधारों के दौरान भू-स्वामियों ने अपनी भूमि को रिश्तेदारों या अन्य लोगों के नाम पर दिखाकर अपनी संपत्ति को सुरक्षित किया। इस प्रक्रिया को बेनामी बदल कहा जाता है, जो ग्रामीण समाज में एक नई समस्या बन गई।

हरित क्रांति: कृषि में बदलाव

हरित क्रांति का उदय

1970 के दशक में, उच्च उपज देने वाले बीजों, उर्वरकों, और नई सिंचाई तकनीकों के माध्यम से कृषि उत्पादन में वृद्धि करने के लिए हरित क्रांति का कार्यान्वयन किया गया। यह भारत के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में नई संभावनाएँ खोलीं।

हरित क्रांति के लाभ और हानि

हरित क्रांति ने कृषि उत्पादन को बढ़ाने में मदद की, लेकिन इसके लाभ मुख्यतः अमीर किसानों को ही मिले। छोटे और सीमांत किसान नई तकनीक और उर्वरकों के महंगे दामों के कारण इसका लाभ नहीं उठा पाए।

सामाजिक परिणाम

हरित क्रांति के कारण वर्ग संघर्ष, खाद्यान्नों के मूल्य में वृद्धि, और आर्थिक असमानता में वृद्धि हुई। यह स्थिति छोटे किसानों और कृषि मजदूरों के लिए चिंताजनक थी, जिन्होंने अपनी स्थिति को और कमजोर होते देखा।

स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण समाज में परिवर्तन

सामाजिक संबंधों में बदलाव

स्वतंत्रता के बाद, ग्रामीण समाज में सामाजिक संबंधों की प्रकृति में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। हरित क्रांति ने कृषि मजदूरों की संख्या में वृद्धि की और नगद भुगतान की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। इससे भू-स्वामियों और किसानों के बीच के पारंपरिक संबंध कमजोर हुए।

दिहाड़ी मजदूरों का उदय

गहराते आर्थिक संकट और कृषि में स्थिरता के अभाव ने दिहाड़ी मजदूरों की संख्या को बढ़ा दिया। ये मजदूर कृषि के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी काम करने लगे, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में एक नया परिवर्तन आया।

मजदूरों का संचार: एक नई चुनौती

पलायन का प्रभाव

1990 के दशक में ग्रामीण असमानताओं के कारण मजदूरों का पलायन बढ़ा। जॉन ब्रेमन ने इन्हें “घुमक्कड़ मजदूर” कहा। ये मजदूर बड़े पैमाने पर ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर चले गए, जिससे दोनों स्थानों पर विभिन्न प्रकार के प्रभाव पड़े।

ग्रामीण समाज पर प्रभाव

मजदूरों के संचार ने गाँवों में श्रम की कमी और शहरी क्षेत्रों में श्रमिकों की अधिकता का कारण बना। इसने ग्रामीण समाज की संरचना को भी प्रभावित किया।

संविदा कृषि: नई कृषि प्रणाली

संविदा कृषि का अर्थ

भूमंडलीकरण और उदारीकरण के चलते, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ किसानों को विशेष प्रकार की फसल उगाने के लिए प्रेरित करती हैं। इसे संविदा कृषि कहा जाता है, जिसमें किसान कंपनियों पर निर्भर हो जाते हैं।

संविदा कृषि के लाभ और हानि

संविदा कृषि के माध्यम से किसानों को तकनीकी सहायता और बाजार की जानकारी मिलती है, लेकिन इसके साथ ही वे कंपनियों के आगे निर्भर हो जाते हैं। यह स्थिति कई बार किसानों के लिए असुरक्षित हो जाती है।

किसानों की आत्महत्या: एक गंभीर समस्या

आत्महत्या के कारण

किसानों की आत्महत्या के मामले बढ़ते जा रहे हैं। कई किसानों ने अपनी उत्पादकता बढ़ाने के लिए हरित क्रांति के तरीकों को अपनाया, लेकिन उत्पादन लागत में वृद्धि और बाजार अस्थिरता ने उन्हें भारी संकट में डाल दिया।

ऋण और आर्थिक समस्याएँ

किसानों की आत्महत्या का एक बड़ा कारण ऋण का बोझ है। खेती की लागत में बढ़ोतरी, उत्पादन का गिरता मूल्य, और बाजार में अस्थिरता ने किसानों को कर्ज में डुबो दिया। इसके परिणामस्वरूप, किसान अपने परिवार का भरण-पोषण करने में असमर्थ हो गए हैं।

निष्कर्ष

ग्रामीण समाज में विकास और परिवर्तन के ये पहलू हमें दिखाते हैं कि कृषि, सामाजिक संरचना, और आर्थिक परिस्थितियाँ आपस में किस प्रकार जुड़ी हुई हैं। हरित क्रांति, भूमि सुधार, और संविदा कृषि ने ग्रामीण समाज को नए आयाम दिए हैं, लेकिन इसके साथ ही कई चुनौतियाँ भी उत्पन्न हुई हैं। सामाजिक असमानता, आर्थिक कठिनाइयाँ, और पर्यावरणीय संकट के समाधान के लिए आवश्यक है कि हम ग्रामीण विकास को एक समग्र दृष्टिकोण से समझें और कार्य करें।

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