सामाजिक संस्थाएँ निरंतरता एवं परिवर्तन (Sociology Class 12 Notes): समाज की संरचना एक जटिल ताने-बाने की तरह होती है, जिसमें विभिन्न समुदाय और वर्ग एक साथ मिलकर जीवन जीते हैं। यह केवल अलग-अलग व्यक्तियों का समूह नहीं है, बल्कि यह सामाजिक संबंधों, परंपराओं, और सांस्कृतिक मूल्यों का संगम है। सामाजिक संस्थाएँ इस समाज के विभिन्न पहलुओं को जोड़ती हैं और एक व्यवस्थित रूप प्रदान करती हैं।
Textbook | NCERT |
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Class | Class 12 Notes |
Subject | Sociology (समाज शास्त्र) |
Chapter | Chapter 3 |
Chapter Name | सामाजिक संस्थाएँ निरंतरता एवं परिवर्तन |
Category | कक्षा 12 Sociology नोट्स |
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Official Website | JAC Portal |
समाज की संरचना
समाज केवल विभिन्न व्यक्तियों का एक समूह नहीं है, बल्कि यह कई समुदायों और वर्गों से मिलकर बना है। इन समुदायों के बीच आपसी संबंध और अंतःक्रियाएँ समाज की पहचान और संस्कृति को निर्धारित करती हैं। समाज में विभिन्न प्रकार की संस्थाएँ होती हैं, जो सामाजिक व्यवस्था और संगठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
भारतीय समाज की प्रमुख संस्थाएँ
भारतीय समाज में प्रमुख सामाजिक संस्थाएँ हैं:
- जाति
- जनजाति
- परिवार
जाति
जाति एक प्राचीन सामाजिक संस्था है, जिसका इतिहास हजारों वर्षों से जुड़ा हुआ है। इसे अंग्रेजी में “Caste” कहा जाता है, जिसका अर्थ है विशुद्ध नस्ल। जाति व्यवस्था भारतीय समाज की जड़ में है और यह आज भी समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करती है।
जाति व्यवस्था का विकास
जाति व्यवस्था का विकास प्राचीन काल में हुआ था। प्रारंभ में यह व्यवस्था इतनी कठोर नहीं थी, लेकिन समय के साथ यह और अधिक जटिल हो गई। जातियों का गठन जन्म, पेशा, और सामाजिक मानदंडों के आधार पर हुआ।
जाति की विशेषताएँ
जाति की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- समाज का खण्डात्मक विभाजन: जाति व्यवस्था में समाज को चार खण्डों में विभाजित किया गया है: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र।
- संस्तरण: जातियों के बीच उच्चता और निम्नता का क्रम होता है, जहाँ ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त होता है।
- पारंपरिक व्यवसाय: प्रत्येक जाति का एक विशेष पेशा होता है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है।
- खाने और सहवास संबंधी नियम: जाति में सदस्यों के लिए खाने और खाने के नियम निर्धारित होते हैं।
- अन्तर्विवाही: विवाह अक्सर अपनी जाति में किया जाता है।
- जन्मजात सदस्यता: जाति की सदस्यता जन्म से प्राप्त होती है, जिसे बदला नहीं जा सकता।
जनजाति
जनजातियाँ ऐसी सामाजिक इकाइयाँ हैं जो किसी लिखित धर्मग्रंथ का पालन नहीं करतीं। ये अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने का प्रयास करती हैं।
जनजातियों का वर्गीकरण
जनजातियों को मुख्यतः दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- स्थायी विशेषक: इसमें भूगोल, भाषा, और शारीरिक संरचना शामिल हैं।
- अर्जित विशेषक: ये जनजातियाँ मुख्यधारा के समाज से जुड़ने के लिए अपने जीवन यापन के साधनों में बदलाव लाती हैं।
परिवार
परिवार एक महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था है, जो सदस्यों के बीच रक्त, विवाह, या अन्य नातेदारी के आधार पर संबंध स्थापित करता है।
परिवार के प्रकार
- मूल परिवार: इसमें माता-पिता और उनके बच्चे शामिल होते हैं।
- विस्तृत परिवार: इसमें दो या अधिक पीढ़ियाँ एक साथ रहती हैं।
परिवारिक ढांचे में बदलाव
आधुनिक समय में परिवार का ढांचा बदल रहा है। उदाहरण के लिए, शहरीकरण के कारण कई पुरुष ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप महिला प्रधान परिवारों की संख्या बढ़ रही है।
जाति व्यवस्था का सामाजिक प्रभाव
जाति व्यवस्था केवल एक सामाजिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक ढांचे को भी प्रभावित करती है।
औपनिवेशिक काल का प्रभाव
ब्रिटिश शासन के दौरान जाति व्यवस्था को औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा जटिल रूप से समझा गया। 1901 में हरबर्ट रिजले ने जातियों की जनगणना शुरू की, जिससे जातियों की संख्या और स्थिति को मान्यता मिली।
समकालीन भारत में जाति
आजाद भारत में जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए कई कानून बनाए गए हैं। अनुसूचित जातियों और जनजातियों को विशेष अधिकार दिए गए हैं। हालांकि, आधुनिक उद्योगों और शहरीकरण ने जाति प्रथा के प्रभाव को कम किया है।
संस्कृति और जाति
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में निम्न जातियों के सदस्य उच्च जातियों की परंपराओं और रिवाजों को अपनाते हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो समाज में समानता लाने के प्रयासों को दर्शाती है।
प्रबल जाति
प्रबल जाति वह होती है जिसकी संख्या अधिक होती है और जो राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से मजबूत होती है। उदाहरण के लिए, बिहार में यादव और कर्नाटक में बोक्कलिंग प्रमुख प्रबल जातियाँ हैं।
जाति और शिक्षा
आज के समय में, उच्च शिक्षा और तकनीकी कौशल ने विभिन्न जातियों के बीच की भिन्नताएँ कम की हैं। कई लोग अपनी जाति को भुलाकर एक नया सामाजिक वर्ग बना रहे हैं।
जनजातीय समुदायों की चुनौतियाँ
जनजातियाँ अक्सर मुख्यधारा के समाज से हाशिये पर रहती हैं। उन्हें कई आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
जनजातीय पहचान
जनजातियाँ अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं। बड़े विकास परियोजनाओं के चलते उन्हें अपनी भूमि और संसाधनों से वंचित किया जा रहा है।
जनजातीय आंदोलनों का उदय
हाल के वर्षों में, जनजातीय समुदायों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाई है। झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में, जनजातीय आंदोलनों ने अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
सामाजिक परिवर्तन
समाज में परिवर्तन एक निरंतर प्रक्रिया है, जिसमें न केवल संस्थाओं का विकास होता है, बल्कि यह लोगों के विचारों, व्यवहारों, और मान्यताओं में भी बदलाव लाता है।
परिवारों में बदलाव
परिवारों की संरचना में बदलाव आ रहा है। युवा पीढ़ी अब अपने जीवनसाथी का चुनाव अपनी पसंद से कर रही है, न कि पारिवारिक दबाव के आधार पर।
महिला सशक्तीकरण
महिलाएँ अब समाज में अधिक सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। शिक्षा, रोजगार, और राजनीतिक अधिकारों के क्षेत्र में उनकी भागीदारी बढ़ी है।
निष्कर्ष
सामाजिक संस्थाएँ निरंतरता और परिवर्तन का एक जटिल ताना-बाना हैं। जाति, जनजाति, और परिवार जैसे संस्थाएँ समाज की नींव हैं, जो समय के साथ विकसित हो रही हैं। हालांकि कई चुनौतियाँ हैं, लेकिन सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया निरंतर जारी है।
इन संस्थाओं की समझ से हमें यह भी पता चलता है कि कैसे परिवर्तन के माध्यम से समाज में सकारात्मक बदलाव लाए जा सकते हैं। अंततः, समाज में समानता, न्याय, और भाईचारे का विकास ही सामाजिक संस्थाओं की वास्तविक सफलता है।
यह सामग्री सामाजिक संस्थाओं के निरंतरता और परिवर्तन के विषय में एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। अगर आप किसी विशेष विषय पर और अधिक जानकारी चाहते हैं या कुछ और जोड़ना चाहते हैं, तो कृपया Comment करके बताएं!