शीत युद्ध का दौर (Political Science Class 11 Notes): शीत युद्ध का दौर एक ऐसा ऐतिहासिक काल है जो अमेरिका और सोवियत संघ के बीच की राजनीतिक, आर्थिक, और विचारधारात्मक प्रतिस्पर्धा का प्रतीक है। यह संघर्ष 1945 से लेकर 1991 तक चला, जब तक कि सोवियत संघ का विघटन नहीं हुआ। शीत युद्ध का मतलब है कि दो या दो से अधिक देशों के बीच ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई, जिसमें युद्ध का खतरा बना रहता है, लेकिन वास्तविक युद्ध नहीं होता। इस दौर में तनाव, भय, और संघर्ष की स्थिति बनी रहती थी, लेकिन युद्ध का कोई वास्तविक रूप नहीं था।
Textbook | NCERT |
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Class | Class 12 Notes |
Subject | Political Science (राजनीति विज्ञान) |
Chapter | Chapter 1 |
Chapter Name | शीत युद्ध का दौर |
Category | कक्षा 12 Political Science नोट्स |
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Official Website | JAC Portal |
शीत युद्ध का प्रारंभ
द्वितीय विश्व युद्ध के अंत के साथ ही शीत युद्ध की शुरुआत हुई। जब जर्मनी और जापान ने आत्मसमर्पण किया, तब दुनिया में नई शक्तियों का उदय हुआ। अमेरिका और सोवियत संघ दो प्रमुख महाशक्तियाँ बन गईं, और इन दोनों के बीच विचारधारा का टकराव शुरू हुआ। अमेरिका ने लोकतंत्र और पूंजीवाद को प्राथमिकता दी, जबकि सोवियत संघ ने समाजवाद और साम्यवाद का प्रचार किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम
द्वितीय विश्व युद्ध ने विश्व राजनीति को पूरी तरह से बदल दिया। इस युद्ध में मित्र राष्ट्रों (अमेरिका, सोवियत संघ, ब्रिटेन और फ्रांस) ने धुरी राष्ट्रों (जर्मनी, इटली और जापान) को हराया। युद्ध के अंत के साथ ही अमेरिका ने जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए, जिससे युद्ध समाप्त हुआ। यह घटना न केवल मानवता के लिए एक गंभीर झटका थी, बल्कि यह अमेरिका और सोवियत संघ के बीच के संबंधों में भी एक नई दिशा की शुरुआत थी।
शीत युद्ध के कारण
महाशक्ति बनने की होड़
अमेरिका और सोवियत संघ दोनों महाशक्ति बनने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। इस प्रतिस्पर्धा ने दोनों देशों के बीच तनाव को बढ़ाया। अमेरिका ने पश्चिमी देशों में लोकतंत्र और पूंजीवाद का प्रसार किया, जबकि सोवियत संघ ने समाजवाद और साम्यवाद का समर्थन किया। यह विचारधारात्मक संघर्ष ही शीत युद्ध का मूल कारण था।
परमाणु हथियारों की होड़
दूसरा बड़ा कारण था दोनों देशों के पास मौजूद परमाणु हथियारों का भंडार। दोनों महाशक्तियों ने इतने परमाणु हथियार विकसित कर लिए थे कि वे एक-दूसरे को भारी क्षति पहुंचा सकते थे। इस परिस्थिति में कोई भी देश सीधे युद्ध की ओर नहीं बढ़ना चाहता था, क्योंकि इसका परिणाम विनाशकारी हो सकता था। इस स्थिति ने एक अस्थायी शांति बनाए रखी, जिसमें युद्ध की संभावना कम हो गई।
क्यूबा का मिसाइल संकट
1962 में क्यूबा का मिसाइल संकट शीत युद्ध के सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में से एक था। क्यूबा अमेरिका के निकट था, लेकिन इसका संबंध सोवियत संघ से था। जब सोवियत संघ ने क्यूबा में परमाणु मिसाइलें तैनात कीं, तो अमेरिका ने इसका विरोध किया। यह घटना दुनिया को युद्ध के कगार पर ले गई और अंततः शीत युद्ध के तनाव को बढ़ा दिया। इस संकट के दौरान, दोनों देशों के नेताओं ने बातचीत के माध्यम से संकट को समाप्त किया, जिससे एक बड़ी युद्ध की संभावना टल गई।
शीत युद्ध के प्रमुख तत्व
दो ध्रुवीय विश्व का निर्माण
शीत युद्ध के दौरान, दुनिया दो ध्रुवीय हो गई। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच विभाजन ने वैश्विक राजनीति को प्रभावित किया। पश्चिमी यूरोप ने अमेरिका के नेतृत्व में लोकतंत्र और पूंजीवाद को अपनाया, जबकि पूर्वी यूरोप सोवियत संघ के अधीन समाजवादी शासन में आया। इस विभाजन ने दुनिया को विभिन्न गुटों में बांट दिया।
नाटो और वारसा संधि
1949 में अमेरिका के नेतृत्व में उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) का गठन हुआ। इसका उद्देश्य किसी भी हमले की स्थिति में सामूहिक रक्षा करना था। इसके विपरीत, सोवियत संघ ने 1955 में वारसा संधि की स्थापना की, जिसमें पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों को एकजुट किया गया। यह संधि नाटो के खिलाफ एक सामरिक जवाब था।
छोटे देशों का महत्व
महाशक्तियों के लिए छोटे देशों का महत्व कई कारणों से था:
- संसाधन: छोटे देशों में प्राकृतिक संसाधनों का बड़ा भंडार था, जैसे तेल और खनिज।
- भू-स्थान: यह महाशक्तियों को रणनीतिक आधार प्रदान करता था।
- सैनिक ठिकाने: छोटे देशों में सैनिक ठिकाने स्थापित कर, महाशक्तियाँ एक-दूसरे की जासूसी कर सकती थीं।
- आर्थिक सहायता: छोटे देशों की सहायता करके, महाशक्तियाँ अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ा सकती थीं।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन
शीत युद्ध के दौरान कई देश गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने लगे। भारत, इजिप्ट, युगांडा, और युगोस्लाविया जैसे देशों ने एक ऐसा गुट बनाने की कोशिश की, जो न तो अमेरिका के पक्ष में होता और न ही सोवियत संघ के। इस गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने वैश्विक राजनीति में एक नई दिशा दी।
शीत युद्ध के प्रभाव
भू-राजनीतिक परिवर्तन
शीत युद्ध ने विश्व राजनीति में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। इसने छोटे देशों की राजनीति को प्रभावित किया और उनमें महाशक्तियों के प्रभाव को बढ़ाया। कई देश अमेरिका या सोवियत संघ में से एक के पक्ष में खड़े हो गए, जिससे वैश्विक शक्ति संतुलन बदल गया।
अनेक सैन्य संगठन और संधियाँ
इस काल में कई सैन्य संगठन और संधियाँ बनीं, जैसे नाटो, वारसा संधि, और अन्य क्षेत्रीय संगठन। इन संगठनों ने अपनी-अपनी सुरक्षा के लिए एक-दूसरे के साथ सहयोग बढ़ाया और सैन्य गतिविधियों में वृद्धि की।
परमाणु हथियारों की होड़
दोनों महाशक्तियों के बीच परमाणु हथियारों की होड़ ने वैश्विक सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा पैदा किया। इस दौरान कई देशों ने परमाणु हथियार विकसित किए, जिससे युद्ध की स्थिति में विनाश का खतरा और भी बढ़ गया।
शीत युद्ध का अंत
शीत युद्ध का अंत 1991 में हुआ, जब सोवियत संघ का विघटन हुआ। यह विघटन केवल सोवियत संघ के अंत का प्रतीक नहीं था, बल्कि यह एक नए विश्व व्यवस्था की शुरुआत भी थी। अमेरिका अब एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरा, और वैश्विक राजनीति में एक नया युग शुरू हुआ।
विघटन के कारण
सोवियत संघ का विघटन कई कारणों से हुआ:
- आर्थिक समस्याएँ: सोवियत अर्थव्यवस्था का पतन।
- राजनीतिक अस्थिरता: नेतृत्व में निरंतर परिवर्तन और असहमति।
- नागरिक स्वतंत्रता की मांग: विभिन्न गणराज्यों में स्वतंत्रता की माँगें।
निष्कर्ष
शीत युद्ध का दौर न केवल अमेरिका और सोवियत संघ के बीच की प्रतिस्पर्धा का प्रतीक था, बल्कि इसने वैश्विक राजनीति को भी गहराई से प्रभावित किया। यह अवधि विचारधारात्मक संघर्ष, सैन्य संगठन, और भू-राजनीतिक परिवर्तन का समय था। अंततः, शीत युद्ध का समाप्त होना एक नए वैश्विक युग की शुरुआत का संकेत था, जिसमें अमेरिका ने एकमात्र महाशक्ति के रूप में अपनी स्थिति मजबूत की।
शीत युद्ध के दौरान सीखी गई कई बातें आज भी वैश्विक राजनीति में महत्वपूर्ण हैं, और इससे प्राप्त अनुभव भविष्य के संघर्षों को समझने में मदद कर सकते हैं।